कबीर दास (1398-1518) 15वीं शताब्दी के भारतीय संत और कवि थे।
कबीर दास जी ने अपने सकारात्मक विचारों से करीब 800 दोहों में जीवन के कई पक्षों पर अपने अनुभवों का जीवंत वर्णन किया है, उनके लेखन ने हिंदू धर्म के भक्ति आंदोलन को प्रभावित किया, और उनके छंद सिख धर्म के ग्रंथ गुरु ग्रंथ साहिब, संत गरीब दास के सतगुरु ग्रंथ साहिब और कबीर सागर में पाए जाते हैं।
इनमे से इनके सबसे प्रसिद्द कबीर के दोहे ( kabeer ke dohe ) आइये आपको बताते हैं , आप भी इन कबीर के दोहे को पढ़ें और इनमे छुपे गहरे अर्थों को जानने और जीवन में अमल करने का प्रयत्न करें।
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दुःख में सुमिरन सब करे, सुख में करे न कोय ।
जो सुख में सुमिरन करे, तो दुःख काहे को होय ।
ऐसी वाणी बोलिए, मन का आपा खोये।
औरन को शीतल करे, आपहुं शीतल होए।।
गुरु गोविंद दोऊ खड़े, काको लागूं पाय
बलिहारी गुरु आपकी, जिन गोविंद दियो बताय।
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साईं इतना दीजीए, जामे कुटुंब समाए
मै भी भूखा न रहूं, साधू न भूखा जाए।
कबीर कुआ एक हे,पानी भरे अनेक।
बर्तन ही में भेद है पानी सब में एक ।।
बुरा जो देखन मैं चला, बुरा न मिलिया कोय,
जो दिल खोजा आपना, मुझसे बुरा न कोय।।
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कबीरा तेरे जगत में, उल्टी देखी रीत ।
पापी मिलकर राज करें, साधु मांगे भीख ।
माला फेरत जुग भया, फिरा न मन का फेर,
कर का मनका डार दे, मन का मनका फेर।
माटी कहे कुमार से, तू क्या रोदे मोहे ।
एक दिन ऐसा आएगा, मैं रोंदुंगी तोहे ।
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चलती चक्की देख कर, दिया कबीरा रोए
दुई पाटन के बीच में, साबुत बचा न कोए।
धीरे-धीरे रे मना, धीरे सब कुछ होय,
माली सींचे सौ घड़ा, ऋतु आए फल होय।
जाति न पूछो साधु की, पूछ लीजिये ज्ञान,
मोल करो तरवार का, पड़ा रहन दो म्यान।
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दोस पराए देखि करि, चला हसन्त हसन्त,
अपने याद न आवई, जिनका आदि न अंत।
तिनका कबहुँ ना निन्दिये, जो पाँवन तर होय,
कबहुँ उड़ी ऑखिन पड़े, तो पीर घनेरी होय।
पोथी पढ़ि पढ़ि जग मुआ, पंडित भया न कोय,
ढाई आखर प्रेम का, पढ़े सो पंडित होय।
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अति का भला न बोलना, अति की भली न चूप ।
अति का भला न बरसना, अति की भली न घूप ।।
तन की सौ सौ बनदिशे मन को लगी ना रोक ,
तन की दो गज कोठरी मन के तीनो लोक।
राम नाम की लूट है, लूट सके तो लूट ,
अंत काल पछताएगा, जब प्राण जाएंगे छूट।
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निंदक नियरे राखिये, आँगन कुटी छवाय ।
बिन पानी साबुन बिना, निर्मल करे सुभाय।
माया मरी न मन मरा, मर-मर गए शरीर
आशा, तृष्णा ना मरी, कह गए दास कबीर।
पोथि पढ़-पढ़ जग मुआ, पंडित भया न कोए,
ढाई आखर प्रेम के, पढ़े सो पंडित होए।
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साईं इतना दीजिए, जा में कुटुंब समाए,
मैं भी भूखा न रहूं, साधू न भूखा जाए।
धीरे-धीरे रे मन, धीरे सब-कुछ होए
माली सींचे सौ घड़ा, ऋतु आए फल होये।
धर्म किये धन ना घटे, नदी न घट्ट नीर,
अपनी आखों देखिले, यों कथि कहहिं कबीर।
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तिनका कबहूँ ना निन्दिये, जो पाँवन तर होय,
कबहूँ उड़ी आँखिन पड़े, तो पीर घनेरी होय।
जाति न पूछो साधू की, पुच लीजिए ज्ञान,
मोल करो तरवार का, पड़ा रहन दो म्यान।
कबीरा सोई पीर है, जो जाने पर पीर,
जो पर पीर न जानही, सो का पीर में पीर।
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गुरू बिन ज्ञान न उपजै, गुरू बिन मिलै न मोष,
गुरू बिन लखै न सत्य को गुरू बिन मिटै न दोष।
माटी का एक नाग बनाके, पुजे लोग लुगाया,
जिंदा नाग जब घर मे निकले, ले लाठी धमकाय।
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जहाँ दया तहा धर्म है, जहाँ लोभ वहां पाप,
जहाँ क्रोध तहा काल है, जहाँ क्षमा वहां आप।